Friday, July 27, 2012

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत कथा


श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत

—भारत के समस्त धार्मिक स्थलों में 10 अगस्त, शुक्रवार को रात्रि 12 : 00 बजे श्रीकृष्ण जन्म मनाया जायेगा

—9 अगस्त गुरुवार को स्मार्तानाम्  श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत पर्व मनाया जायेगा।

द्वापर युग में जब पृथ्वी पापाचार.अत्याचार से दुखी हुई माता पृथ्वी ने गौ का रूप धारण कर ब्रह्मा जी की शरण में गई तब सब देवों को साथ ले ब्रह्मा जी ने क्षीर सागर में जाकर भगवान नारायण की पुरुष सूक्त के द्वारा सुन्दर स्तुति की। प्रभु ने आदेश दिया— मैं वसुदेव के यहां देवकी के गर्भ से अवतार लूंगा। आप लोग भी व्रज में अवतार लो और मेरी लीला में सहयोगी बनना।

उग्रसेन के छोटे भाई देवक की पुत्री जब विवाह के योग्य हुई तो वसुदेव जी के साथ देवकी का विवाह किया। उग्रसेन का बली पुत्र कंस संसार में प्रेम दिखाने के लिये सारथी को हटाकर स्वयं रथ की बागडोर संभालकर चलाने लगा। प्रभु ने सोचा जिस मां के गर्भ से मेरा प्रागट्य होने वाला है, उसकी बागडोर कंस के हाथ में हो यह उचित नहीं, सभी जन समुदाय कंस की वाह.वाह कर रहे थे। कंस के हृदय में क्या है? 

यह प्रगट करने के लिये आकाश से आवाज आई। अस्यास्त्वाष्टमों गर्भो हन्तायांवहसे बुध। इसके आठवें गर्भ के द्वारा तेरी मृत्यु होगी। सुनते ही कंस रथ से नीचे कूद पड़ा। तलवार निकाल देवकी का सिर काटना चाहा। वसुदेव जी ने रोका और कहा (श्लाघनीयः गुणः सूरै भवान्, भोज यशस्करः)। आप जैसे प्रसंशनीय वीर को एक अबला की हत्या कर देना शोभा नहीं देता। आप को देवकी से नहीं अपितु उसके गर्भ से डर है सो मैं वचन देता हूं कि इसके जो बालक होंगे जन्म लेते ही तुम्हें समर्पित कर दूंगा। तब आपकी जो इच्छा हो सो करना। वसुदेव की बात का विश्वास करके कंस ने देवकी को छोड़ दिया। 

भगवान ने शेष से एवं धर्म पत्नी से कहा अब अवतार का समय आ गया है, वासुदेव ने छः पुत्रें को कंस के हाथों में सौंप चुके हैं, और वे मारे भी जा चुके हैं। भगवान ने महामाया को आदेश दिया, देवकी के गर्भ को नन्द जी के यहां व्रज में रोहिणी के गर्भ में स्थापित करो। तथा तुम यशोदा के गर्भ से जन्म ग्रहण करो। और मैं भी आ रहा हूं। देवकी और वसुदेव कारागार में बन्द थे। प्रभु ने सोचा गोलोक धाम (बैकुण्ठ धाम) का सुख तो बहुत देखा। अब इच्छा हे, इन कारागार वासियों के दुःख दर्द को आनन्द में परिवर्तित करूं। उनको भी कृतकृत्य करना चाहिये। इसीलिये कंस के कारागार में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी दिन बुधवार और रोहणी नक्षत्र में ठीक रात्रि के बारह (12) बजे भगवान कन्हैया का प्रादुर्भाव हुआ।

बोलिये बालकृष्ण लाल की जय। कृष्ण  कन्हैया   लाल   की  जय।।

      वसुदेव जी को भगवान ने आदेश दिया मुझे गोकुल नन्द बाबा के यहां पहुंचाओ तथा यशोदा के यहां कन्या ने जन्म ग्रहण किया है, उस कन्या को तुम ले आओ। वसुदेव जी सूप में लेकर चले। तो सब ताले खुल गये, सब सैनिक सो गये, यमुना ने मार्ग दे दिया। पानी की हल्की.हल्की बूंदे पड़ रही थीं। यहां गोकुल में भी सब सोये हुए थे। वसुदेव जी ने यशोदा के पास कृष्ण को सुलाकर कन्या को लेकर आ गये। संसार में वास्तविक चमत्कार दिखाई दिया। प्रभु के आते ही सब बन्धन ताले खुल गये और महामाया के आते ही बन्धन ताले पुनः लग गये। कन्या कारागार में पहुंचते ही तेजी से रोई। सब जाग गये। कंस को पता चला कंस ने आकर देवकी के हाथों से कन्या को छीन पत्थर पर दे मारा। कन्या उसके हाथ से छूटकर सिर पर लात मारकर आकाश में अष्टभुजी देवी के रूप में परिणित हुई और कहा—

        कंस मेरे को मारने से क्या लाभ। तेरे शत्रु का तो प्रादुर्भाव हो चुका है।
        इस प्रकार से दूसरे दिन गोकुल में भगवान का दिव्य जन्मोत्सव मनाया गया व्रज में भगवान श्री कृष्ण नित्य ही नयी लीला करते हुए 11 वर्ष 56 दिन के होते होते कंस का उद्धार किया। 

      कंस के मारने के पश्चात माता-पिता को प्रणाम करने गये। प्रेम विह्वल माता-पिता आनन्दातिरेक में मग्न थे प्रजा जय-जयकार कर रही थी। सबने प्रार्थना की प्रभो आपका जन्मोत्सव न मना सके। अब आप वरदान दें। आपके जन्मोत्सव का फल एवं आनन्द प्राप्त हो सके। श्री कृष्ण ने वरदान दिया—और कहा जन्म दिन के समय मेरी व्रज लीलाओं के चित्र दीवारों पर लिखने या लगाने चाहिये। एक सूतिका गृह बनाना चाहिये। जिसमें मां देवकी बालक कृष्ण हो तथा अन्य सब हो। सब का पूजन करना चाहिये।

।। पूजन ।।

          भगवत्यै श्री देवक्यै नमः, श्री वसुदेवाय नमः, श्री बलभद्राय नमः, श्री यशोदायै नमः श्री नन्दाय नमः। श्री नन्दात्मजायै महामायायै नमः। श्री कृष्णाय नमः। श्री कृष्णाय सपरिवाराय नमः। आवाहयामि पूजयामि।

   इस प्रकार पूजन आदि कर बधाई गीत आदि गाना चाहिये। उपरान्त कृष्ण लीला चिन्तन तथा आरती करें, प्रसाद आदि ग्रहण करें।

।। इति ।।

हलषष्ठी, ललही छठ


हलषष्ठी, ललही छठ

       यह व्रत भाद्रपद कृष्ण पक्ष षष्ठी को किया जाता है। इस दिन हल मूसल धारी श्री बलराम जी का जन्म हुआ था। कुछ लोग जनक नंदिनी माता सीता का भी जन्म दिवस इस तिथि को मानते हैं, बलराम जी के मुख्य शस्त्रों में हल और मूसल उल्लेखनीय है। इसी से इनका एक नाम हलधर भी है, इन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम हलषष्ठी पड़ा होगा। पुत्रवती स्त्रियां ही इस व्रत को करती हैं। इस दिन महुए की दातुन करने का विधान है। पारण के समय हल से जोता बोया गया अन्न नहीं खाना चाहिए इस कारण इस व्रत का सेवन करने वाली स्त्रियां नीवार (फरनहीं) का चावल सेवन करती हैं। इस दिन गाय का दूध भी वर्जित है। विधि.विधान में प्रातः सद्यः स्नाता की स्त्रियां भूमि (आंगन) लीपकर एक कुण्ड बनाती हैं। जिसमें बेरी, पलाश, गूलर, कुश, प्रभुत्ति टहनियां गाड़कर ललही की पूजा करती हैं। पूजन में सतनजा (गेहूं, चना, धान, मक्का, अरहर, ज्वार, बाजरे) आदि का भुना हुआ लावा चढ़ाया जाता है। हल्की से रंगा हुआ वस्त्र तथा कुछ सुहाग सामग्री भी चढ़ाई जाती है। पूजनोपरान्त निम्न मंत्र से प्रार्थना करनी चाहिए—
गंगा द्वारे कुशावर्ते विल्वके नील पर्वते।
स्नात्वा कनरवले देवि हर लब्धवती पतिम्।।
         अर्थात्— हे देवी ! आपने गंगा द्वारा कुशावर्त विल्वक नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान कर के भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त किया है। सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको बार-बार नमस्कार है। आप मुझे अचल सुहाग दीजिए ऐसी प्रार्थना करें अन्त में शिवधाम की प्राप्ति होती है।
व्रत की कथा—
प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी, जिसका प्रसव काल अत्यन्त सन्निकट था। एक ओर वह पीड़ा से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका चित्त गोरस विक्रय में लगा था।
उसने विचार किया कि यदि बच्चा उत्पन्न हो गया तो फिर दूध दही ऐसे ही पड़ा रह जाएगा यह सोचकर वह झट उठी तथा सिर पर गोरस (दूध, दही) की मटकिया रखकर बेचने चल दी आगे चलकर कष्ट साध्य पीड़ा के कारण एक बनवेरी की ओट में बैठ गई और वहां उसके एक बालक पैदा हुआ। अल्हड़ ग्वालिन ने नवजात शिशु वही रखकर स्वयं दूध, दही बेचने समीपस्थ गांवों को चल दी। संयोग वश उस दिन हलषष्ठी भी थी। गाय भैंस का मिश्रित दूध होने पर भी उसने केवल भैंस का दूध बतलाकर ग्रामीणों को खूब ठगा। 

जिस बनवेरी में उसने बच्चे को छोड़ा था, उसी के समीप एक कृषक हल जोत रहा था। अकस्मात बैलों के भड़कने से चपेट में आकर वह बालक हल का फलक घुसने से मर गया यह घटना देखकर कृषक बहुत दुःखी तथा लाचार हुआ फिर भी उसने धैर्य धारण कर बनवेरी के कांटों से बच्चे के पेट पर टांका लगाकर घटना स्थल पर छोड़ दिया। तत्क्षण ग्वालिन भी विक्रय करके वहां आ गई। बच्चे की यह दशा देखकर उसने अपने ही किये पाप का प्रतिफल समझा फिर वह मन में सोचने लगी कि यदि मैंने हलषष्ठी के दिन दूध.दही विक्रय हेतु मिथ्या भाषण करके उन ग्रामीण नारियों का धर्म नष्ट न किया होता तो यह दशा क्यों होती इसलिए अब लौटकर सब बातें प्रकट कर प्रायश्चित करना होगा। ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में गई जहां उसने दूध दही बेचा था वह गली.गली में घूमकर कहने लगी कि मेरा दूध गाय, भैंस का मिश्रण था। यह सुनकर स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ उसे आशीर्वाद दिया बहुत सी युवतियों के द्वारा आशीष लेकर जब वह पुनः वन में आई तो उसका पुत्र जीवित मिला तभी से उसने स्वार्थ सिद्धि के लिए झूठ बोलना ब्रह्म हत्या के समान निकृष्ट कर्म समझकर छोड़ दिया। किन्हीं.किन्हीं प्रान्तों में ललही छठ.ललिता ब्रह्म के नाम से भी जाना जाता है। विधान उपरोक्त ही है।

।। इति ।।

कज्जली तीज, सतूड़ी तीज


कज्जली तीज, सतूड़ी तीज (5 अगस्त, रविवार को)

भाद्रपद कृष्ण पक्ष की तृतीया को स्त्रियां इस त्योहार को मनाती हैं। इस दिन शिव एवं पार्वती का पूजन करें। स्त्रियां इस रोज सत्तु में चीनी तथा घी मिलाकर भोग लगाती हैं। तथा सासू को वायना देती हैं। प्रसाद पाती हैं, राजस्थान में स्त्रियां श्रृंगार करती हैं, आज के दिन हरकाली (पार्वती) देवी की पूजा करनी चाहिये। इससे सभी पापों का शमन होता है, एवं सुख.सौभाग्य सन्तान की प्राप्ति होती है। इस दिन गौ पूजन कर गाय को गुड़ खिलाना चाहिये।

कथा

विवाह के बाद एक दिन शिव पार्वती कैलाश में विरजामान थे। पर घर में कोई सास व ननंद नहीं है, दिन भर पति पत्नी में विनोद होता रहता, दिन भर हंसी का फव्वारा छूटता रहता था।
प्रातः सदा शिव हिमशिला (बर्फ शिला) पर आसन बिछाकर संध्या करके गायत्री जप कर रहे थे। पार्वती जी पीछे से आकर गलबैयां डालकर कहा-प्राणनाथ मैं कैसी लग रही हूं। शंकर जी तो कर्पूर गौरं करुणावतारं हैं। कपूर की तरह दिव्य रूपवान हैं। और पार्वती काली कलकत्ते वाली जिसके रूप को देखकर कोयल का भी रंग फीका लगे। ऐसी काली थी। अब जब माला पूर्ण हो तो भोले नाथ बोले-सोचने लगे! ऐसी लग रही हो कि मानो पूर्णिमा की चान्द को काली घटा ने घेर लिया हो। फिर सोचा ऐसा कहने पर प्राण प्रिया रूठ गई तो क्या होगा। मैं कह दूंगा चांद में क्या पड़ा है, काली घटा ही जल बरसाकर जीवन दान देती है।
पार्वजी जी ने फिर पीछे से एक झटका मारा। बताओ मैं कैसी लग रही हूं, झटके के कारण फिर सोचने लगे। शिव जी ने सोचा। कपूर की ढेरी पर मानों गोबर रख दिया हो। फिर सोचा.रूठ गईं तो कह दूंगा। गोबर में लक्ष्मी का वास है। उसके बिना यज्ञ ही नहीं हो सकता। तुम तो साक्षात् गृहलक्ष्मी हो। अभी माला पूर्ण नहीं हुई थी। पार्वती ने फिर एक झटका मारा। इस बार के झटके में पीछे की सारी बातें भूल गये और बोले तुम ऐसी लग रही हो, मानों श्वेत चन्दन के दिव्य वृक्ष को काली नागिन ने लपेट लिया हो।
इतना सुनते ही मां पार्वती दूर खड़ी हो गई क्रोध के मारे आंखें लाल हो गईं, नेत्रें से गंगा.यमुना बहने लगी। अपने को बड़ा सुन्दर समझते हो मेरी जैसी याचक का इतना बड़ा अपमान। मैंने आपको प्राप्त करने के लिये जीवन भर तपस्या की जिसका यह फल, शंकर जी ने कहा-मैंने तो विनोद (मजाक) किया था। पार्वती जी ने कहा किसी की आंख में उंगली से घोंचा मार दो और कह दो मैंने तो मजाक किया था। कड़ककर बोली, आपने जहर दिया है जो बोलते हो तो वाणी में वही उगलते हो, मैं काली हूं, तो आप महाकाल, मेरे पिता श्री दक्ष को खा गये। महाकाल देव सारे संसार को खाकर भी तृप्त नहीं होते हो। और मुझे काली कहते शर्म नहीं आती।
शंकर जी ने क्षमा याचना की देवी प्रसन्न हो जाओ भविष्य में सोच.समझकर बोलूंगा। पार्वती जी ने कहाµअब यह रूप आपकी सेवा में नहीं रहेगा। या तो गौराघ्गी बनूंगी या तो शरीर विसर्जित होगा। और चल दीं। फिर सोचा, यदि किसी सौत ने अधिकार जमा लिया तो क्या होगा, अपनी माया से रक्षक बनाकर घोर वन में उग्र तप करने लगीं। तप पूर्ण ही होने वाला था कि पवन देव ने सूचना दी शिव जी के यहां एक राक्षसी ने आपका रूप बनाकर घर पर अधिकार कर लिया है। सुनते ही माया से एक सिंह प्रगट किया। मुख में प्रवेश करने जा रही थी, कि भगवान नारायण प्रगट हुए। वरदान मांगों, मां पार्वती ने कहा अब क्या मांगू। मेरा तो घर उजड़ गया। भगवान हंसे। चिन्ता मत करो शंकर जी ने राक्षसी को मार दिया। सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई। बोली प्रभु मुझे गौरी बना दीजिये। प्रभू ने कहा तथास्तु। ऐसी ही हो, पार्वती जी के शरीर से समस्त कालिमा लिये एक देवी चन्द्रघण्टा नाम की ऊपर चली गई। तथा पार्वती जी तपाये हुए सोने के समान गौरी हो गई। अब तक लोग काली शंकर जानते थे। आज से गौरी शंकर के नाम से आराधना करने लगे। आज के दिन पूर्ण तृतीया को हरकाली के स्मरण में तथा गौरीशंकर के गुणगान में व्रत और पूजन करते हैं।
।। इति कज्जली तृतीया व्रत ।।

रक्षाबंधन


रक्षाबंधन  02 अगस्त 2012 गुरुवार को मनाया जायेगा

(भाई बहनों का त्योहार)

        एक समय युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा—प्रभो अब तक मैंने बहुत कथायें सुनी। प्रभो अब ऐसी कथा सुनाइये जिससे सब रोग दोष शान्त होकर एक वर्ष सुखपूर्वक व्यतीत हो सके।

       भगवान ने कहा—एक समय इन्द्र राक्षसों से युद्ध कर हताश हो गये जीत नहीं मिली इन्द्र ने देव गुरु बृहस्पति की शरण ली। और कहा—गुरुदेव अब क्या करूँ? अब तो युद्ध करना ही श्रेयस्कर है।

       गुरु ने कहा समय देखकर चलना चाहिये। इन्द्राणी ने कहा मैं कुछ व्यवस्था करती हूँ। इन्द्राणी ने ऋषियों से रक्षा विधान करवाकर इन्द्र के हाथ में डोरा बांध दिया। राक्षसों ने डोरा बंधा हुआ देखा, वे राक्षस डरे और भाग खड़े हुए।
भगवान ने कहा उपाकर्म के पश्चात् चौकी लगाकर कलश स्थापन कर रेशमी वस्त्र में अक्षत, सरसों, स्वर्ण खण्ड की पोटली बनाकर कलश पर रखकर रक्षा की अधिष्ठात्री देवी का पूजन कर हाथ में पोटली बांधे।

रक्षाबन्धन (श्रावण शुक्ला पूर्णिमा)

        श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को भद्रा रहित समय में रक्षाबंधन का त्योहार मनाना चाहिये। रक्षाबंधन के पहले दिन दरवाजे के दोनों तरफ गोबर के जल से धोकर 6 × 6 इंच के आकार का उस पर सूण (पुरुष आकार) या स्वास्तिक (सातिया) गेरु से लिख देना चाहिये। पूर्णिमा को मूंग, भात या मिठाई से जिमाना चाहिए।
पहले रोली चावल से पूजा करें बाद में जिमाना चाहिये। किसी-किसी मत से भद्रा आदि में भी रक्षाबंधन उत्सव मनाते हैं। लेकिन शास्त्रें में भद्रा में दो कार्य करने के लिये मना करते हैं।

       श्लोक—‘‘भद्रा द्वे न कर्तव्यो श्रावणी फाल्गुनी तथा।’’ भद्राकाल में दो कयार्यों को नहीं करना चाहिये, पहला—रक्षाबन्धन और दूसरा होलिकादहन।
प्रायः करके भोजन के उपरान्त राखी बांधने की परम्परा सामने आती है, जिसे सभी को स्वीकार करना चाहिये।

बहिन भाई के हाथ में राखी बांधते हैं। बहिन दुर्गा का स्वरूप है, बहिन देवताओं से प्रार्थना करती है, मेरे भाई की सब प्रकार से रक्षा करो। भाई.बहन को रुपया देता है। परन्तु भाई का कर्तव्य है, बहिन की हर तरह से रक्षा करे।

वामन भगवान जब बलि के यहां पहरा देने लगे, लक्ष्मी माता बहुत परेशान हुई। नारद द्वारा पता चला भगवान बलि के यहां है। बलि गंगा स्नान करने के लिये आया माता लक्ष्मी भी वहां वेश बदलकर घाट के किनारे बैठ गईं और रोने लगी। बलि की नजर पड़ी पूछा देवी क्यों रो रही हो, कौन हो आप, लक्ष्मी जी ने कहा क्या करूं मेरे कोई भाई नहीं है, बलि ने कहा तुम्हारे कोई भाई नहीं है, मेरे कोई बहिन नहीं है, चलो आज से मैं तुम्हारा भाई तुम मेरी बहिन हुई।

घर ले जाकर बलि ने राखी बंधवाई, और कहाµबहिन क्या सेवा करूं। लक्ष्मी जी ने कहा भाई इस दरबान वामन के बिना मेरा बैकुण्ठ सूना है, इसे दे दो। कहते.कहते लक्ष्मी जी के आंखों में आंसू छलक पड़े। सुनते ही मूर्छित हो गया। जब होश में आये तो भाई को दुःखी देखकर कहा-भैया दुःखी न हो, दरबान नहीं चाहिये। बलि ने कहा मेरी बहिन पति बिना दुखी हो। भाई कैसे सहन कर सकता है, वामन जी ने कृपा की, एक रूप से बैकुण्ठ गये, एक रूप में दरबान बने रहे।

पंडित जन इसी मंत्र से रक्षा सूत्र (कलावा, मौली) बांधते हैं-
मन्त्र—
        येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
       तेन त्वामनु बध्नामि रक्षेमाचल मा चल।।

।। इति श्रावणी, कर्म-रक्षाबंधन, भाई-बहनों का त्यौहार ।।

श्रावणी कर्म (उपाकर्म)


श्रावणी कर्म (उपाकर्म)

श्रावणी उपाकर्म 02 अगस्त 2012 गुरुवार को मनाया जायेगा।

इस वर्ष इस दिन भद्रा न होने से प्रातःकाल से लेकर कभी भी श्रावणी कर्म किया जा सकता है वैसे तो प्रायः काल प्रातःकाल में ही इस महान् पर्व को मनाने की परम्परा रही है।                              
श्रावण शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को श्रावणी कर्म (उपाकर्म) प्रातः काल नदी या तालाब या गंगा जी के तट पर उपाकर्म के अनुसार संकल्प करके पंचगव्य पीकर सब शारीरिक पाप नष्ट करके जल में विविध प्रकार के गोबर मिट्टी, भस्म, दूर्वा, अपामार्ग आदि से मंत्रों द्वारा स्नान करें। एक वर्ष के जो जान अनजान में होने वाले पापों को नष्ट करके तर्पण तथा सूर्य उपस्थान करें। फिर घर में आकर गणेश, कलश, सप्तऋषि आदि का पूजन कर यज्ञोपवीत पूजन कर नया यज्ञोपवीत धारण करे।। ऋषि वंशावली का पठन श्रवण करें। अपने से बड़ों को यज्ञोपवीत (जनेऊ) श्रद्धपूर्वक प्रदान करें। तदनन्तर हवन करके ब्राह्मण भोजन के पश्चात् स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करें।                                                                     
।। इति ।।

Friday, July 13, 2012

गीता


।। गीता ।।

Geeta Updesh

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र समाज के चार स्तंभ हैं।
श्लोक-चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्याकर्ता रमव्ययम्।।
।। गीता अ. 4-13।।
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-कि गुण और कर्मों के आधार पर मैंने चार वर्णों की सृष्टि उत्पत्ति की है, यद्यपि इन सबों को मैंने बनाया है, अर्जुन पिफर भी तुम मुझे अमर और अकर्ता समझो।
मानव योनी में जो भी आये हैं, उनके कर्म मिश्रित हैं। अर्थात् उनमें विभिन्न माद्ध में अच्छे और बुरे दोनों ही प्रकार के कर्म हैं। इसके साथ ही अलग-अलग वर्गों में सत्व, राजस अथवा तामस जैसे गुणों की न्यूनाधिक प्रभाव होता है। गुण और कर्मों के प्रभाव में अन्तर होने के कारण मानव को चार वर्णों में विभक्त किया गया है।
ब्राह्मणµजिनके व्यक्तित्व में सत्व की प्रबलता अधिक होती है। ब्राह्मण चिन्तनशील अन्तर्मुखी रहता है, तथा दूसरों के लिये आध्यात्मिक मार्गदर्शक बनने की इसमंे सहज प्रवृत्ति होती है।
शास्द्धें के स्वाध्याय और ध्यान के द्वारा स्वयं ज्ञान प्राप्त कर दूसरों में इस ज्ञान का प्रसार करना ही इनका कर्तव्य है।


क्षत्रिय-क्षत्रिय वे हैं जिनमें राजस की प्रबलता होती है। इनकी सहज प्रवृत्ति सैनिक अथवा राजनीतिज्ञ बनने की है। इनका कत्र्तव्य समाज में व्यवस्था और शासन बनाये रखना है।
वैश्यµवैश्य में राजस और तामस दोनों का मिश्रण प्रभावी रहता है। वैश्य स्वभाव से व्यापार अथवा धन संपत्ति अर्जित करने में रुचि रखने वाला होता है। वैश्य को अर्थनीति का अच्छा ज्ञान होता है। इसलिये उसका कर्तव्य समाज में आर्थिक ;धनद्ध सन्तुलन बनाये रखना है।
शूद्रµशूद्र में तामस गुण की अधिकता होती है। वह स्वभाव से ही दूसरों की सेवा में रुचि रखने वाला होता है। उसका कत्र्तव्य विभिन्न कार्यों और माध्यम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य की सेवा करना है। वास्तव में देखा जाय शास्द्धें का अध्ययन किया जाय तो पता चलता है, कि मानव समाज इन चार स्तम्भों पर खड़ा है। यदि सभी वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अपने अपने कत्र्तव्यों का ठीक-ठीक पालन करते हैं, तो समाज की सर्वतोमुखीद्ध उन्नति होती है। तथा एक उत्कृष्ट संस्कृति का जन्म होता है। यदि व्यक्ति अपने कर्तव्यों को त्यागकर वे अपने स्वभाव के विपरीत दूसरे वर्णों के कार्य करने लगते हैं। तो उनका व्यक्तित्व तो स्वयं विकृत होता ही है, समाज मे अनेक प्रकार की विषमतायें, अशान्ति, असन्तुलन और असमंजस्यता भी उत्पन्न हो जाती है।
इन चार वर्णों की सृष्टि परमात्मा ने स्वयं की है, तथा ये सभी वर्ण उनसे ही निर्देशित होते रहते हैं। जिस प्रकार सूर्य सभी प्रकार के बीज को अंकुरित होने के लिये आवश्यक प्रकाश प्रदान करता है, वैसे ही परमेश्वर किसी भी वर्ण के जीव के लिये आवश्यक सहायता देते हैं। सूर्य के समान ही मानव के गुण तथा कर्म से परमेश्वर सर्वथा अप्रभावित और अछूते रहते हैं।
‘‘नमां कर्माणि लिम्पत्ति नमे कर्म पफले स्पृहा।
इति मां योभि जानाति कर्म भिर्नस बाध्यते।।
कर्म मुझे स्पर्श नहीं करते और न ही कर्मों के पफल की मुझे लालसा है। इस प्रकार मुझे जो भी जान लेता है, वह कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।
अर्जुन का प्रश्न
श्री परमात्मा के पूर्णावतार श्री कृष्ण अपनी गीता के तीसरे अध्याय मे अर्जुन को निष्काम कर्म योग का उपदेश देने के बाद चैथे अध्याय मंे प्रारम्भ करते हुए कहा कि अर्जुन हमनें जगत के आरम्भ में इस कर्मयोग का उपदेश सूर्य को दिया था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवश्वत मनु को दिया और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया था इस प्रकार परम्परा से आये हुए इस कर्म योग को राजर्षि गण जानते थे।
परन्तु बहुत समय से यह विद्या लुप्त हो गई है, और इसी विद्या का हमने तुम्हें पुनः उपदेश किया है। अर्जुन ने तब पूछा-
   ‘‘अपरं भवतो जन्मपरं जन्म विवस्वतः’’
आप तो अबके है सूर्य नारायण तो पहले के हैं, फिर मैं आपकी बात कैसे मानूं कि आपने कल्प के आरम्भ में इस विद्या का उपदेश सूर्य को दिया?
भगवान श्री कृष्ण ने कहा
  ‘‘बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन’’ 
हे अुर्जन! जैसे बहुत से जन्म तेरे हैं, वैसे ही मेरे भी जन्म बहुत हुए हैं, अर्जुन विशेषता केवल इस बात की है कि तू उन सबको नहीं जानता, परन्तु मैं जानता हूं। श्रीकृष्ण के इस स्पष्ट उत्तर को सुन कर अर्जुन ने और कुछ नहीं पूछा। परन्तु अर्जुन ने हम समस्त मनुष्यों की तरपफ से एक प्रतिनिधि था, और गीता जी का उपदेश मात्र अर्जुन के लिये ही नहीं था, अपितु बल्कि सारे संसार के मनुष्यों के प्रयोजन के लिये था। इसलिये भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी सर्वज्ञता के कारण हम कलियुगी पुरुषों की बुद्धि में आने वाली शंकाओं और कुयुक्तियों को भी अपने हिसाब मंे लेकर प्रश्न किया। यद्यपि इनका अर्जुन ने तनिक भी नाम तक का भी जिक्र नहीं किया था, हम लोगों के कल्याण के लिये अपने आप शघ्का समाधान और कुयुक्त्यिों का निरसन किया।

राशिफल 2012-2013



राशिफल 2012-2013

  1. 1. मेष- मेषराशि वालों के लिए यह वर्ष शुभदायक रहेगा। शुभ कार्यों में धन व्यय होगा। विरोधी शान्त होंगे। माता-पिता को शरीरिक पीड़ा प्राप्त होगी। व्यापार में सफलता प्राप्त होगी। सन्तति की उन्नति होगी। बौद्धिक कार्यों में सफलता मिलेगी। किसी नये व्यापार का प्रारम्भ होगा। चोट-चपेट की संभावना भी रहेगी। 1,4,8 मास कष्टदायक रहेंगे।
  2. 2. वृष-वृषराशि वालों के लिए यह वर्ष सामान्य शुभदायक रहेगा। भाइयों को पीड़ा होगी। पठन पाठन में अवरोध उत्पन्न होगा। उदर मे विकार हो सकता है। माँगलिक कार्य होंगे। व्यापार तथा कृषि से लाभ होगा। प्रवासी जीवन व्यतीत होगा। न्यायालय में सफलता मिलेगी। व्यापारिक यात्रायें होंगी। 1, 5, 9 मास कष्टदायक होंगे।
  3. 3. मिथुन-मिथुनराशि वालों के लिए यह वर्ष आर्थिक कष्ट तथा शारीरिक पीड़ा देने वाला रहेगा। शनि की अढ़ैया का प्रभाव होने से वर्ष के पूर्वार्ध में आर्थिक एवं मानसिक चिन्ता बढ़ेगी। पत्नी का स्वास्थ्य बाधा युक्त रहेगा। निर्माण कार्यों में सफलता मिलेगी। शनि का जप दान तथा हनुमान जी की आराधना करनी चाहिये। 3, 6,10 मास कष्टदायक रहेंगे।
  4. 4. कर्व$-कर्क राशि वालों के लिए यह वर्ष सामान्य शुभदायक रहेगा। भाइयों को पीड़ा होगी। विरोधी शान्त होंगे। निर्माण कार्यों में बाधा पहुँचेगी। बाल बच्चों की उन्नति होगी। परिवार में माँगलिक कार्य होंगे। व्यापार तथा कृषि से लाभ होगा। प्रवासी जीवन व्यतीत होगा। 3,7,11 मास कष्टदायक रहेंगे।
  5. 5. सिंह-सिंह राशि वालों के लिए वर्ष के प्रारम्भ में शनि की साढ़ेसाती का विशेष प्रभाव रहेगा। आर्थिक एवं मानसिक कठिनाई उत्पन्न होगी। चोट-चपेट की या दुर्घटना की संभावना रहेगी। पारिवारिक विवाद बढ़ेगा। व्यापार में स्वल्प लाभ होगा। पत्नी को कष्ट होगा। वाहन से भय उत्पन्न होगा। परिवार में माँगलिक कृत्य होंगे। ऋण का भार बढ़ेगा। मन अशान्त रहेगा। 4, 7, 10 मास कष्टदायक रहेंगे।
  6. 6. कन्या-कन्याराशि वालों के लिए शनि की साढ़े साती का पूर्ण प्रभाव रहेगा।वर्ष पर्यन्त आर्थिक कष्ट, पारिवारिक चिन्ता तथा मित्रों से मतभेद उत्पन्न होगा। पत्नी का स्वास्थ्य बाधा युक्त रहेगा। शनि की आराधना एवं श्रीहनुमानजी का दर्शन करना चाहिये। 2,5,9 मास कष्टदायक होंगे।
  7. 7. तुला-तुला राशि वालों के लिए शनि की साढ़ेसाती का प्रभाव रहेगा। अकारण दौड़धूप करना पड़ेगा। पारिवारिक कलह तथा विरोधियों का आतंक बढ़ेगा। भाइयों से मतभेद उत्पन्न होगा। बाल-बच्चों की उन्नति होगी। परिवार में माँगलिक कृत्य होंगे। विरोधी पराजित होंगे। किसी निकट संबन्धी को विशेष पीड़ा होगी। 2, 6, 9 मास कष्टदायक रहेंगे।
  8. 8. वृश्चिक-वृश्चिक राशि वालों के लिए यह वर्ष का प्रारम्भ अनुकूल रहेगा। परिवार में माँगलिक कार्य होंगे। कार्तिक शुक्ल से शनि की साढ़ेसाती का प्रभाव होगा। निरर्थक दौड़-धूप तथा मानसिक कष्ट प्राप्त होगा। मात-पिता को धर्मिक कार्योंं का अवसर मिलेगा। बाल-बच्चों को पीड़ा होगी। प्रवासी जीवन व्यतीत होगा। व्यापार में स्वल्प लाभ होगा। माँगलिक कार्यों में धन व्यय होगा। धार्मिक कार्यों में अवरोध उत्पन्न होगा। कृषि तथा व्यापार से सामान्य लाभ होगा। 3, 7, 11 मास कष्टदायक रहेंगे।
  9. धनु- राशिवालों के लिये यह वर्ष सारीरिक पीड़ा तथा मानसिक चिन्ता उत्पन्न करने वाला रहेगा। भाई-बन्धुओं की उन्नति होगी। वर्ष के प्रारम्भ में माता-पिता को कष्ट होगा। बाल-बच्चों की उन्नति होगी। पत्नी का स्वास्थ्य बाधा युक्त रहेगा। माता-पिता को धार्मिक कार्यों का अवसर प्राप्त होगा। राहु की आराधना करनी चाहिये। 4, 8, 12 मास कष्टदायक रहेंगे। 
  10. 10. मकर-मकर राशि वालों के लिए यह वर्ष सामान्य शुभदायक रहेगा। माँगलिक कार्यों में धन व्यय होगा। भाइयों को कष्ट होगा। विरोधी पराजित होंगे। निर्माण कार्यों में अवरोध उत्पन्न होगा। नौकरी तथा व्यापार से लाभ होगा। 1,5,9 मास कष्टदायक रहेंगे।
  11. 11. वु$म्भ- वु$म्भराशि वालों के लिए वर्ष के प्रारम्भ में शनि की अढ़ैया के प्रभाव के कारण आर्थिक कठिनाई, स्वजनों से विरोध तथा मित्रों से मतभेद उत्पन्न होगा। बाल-बच्चों को पीड़ा होगी। दाम्पत्य जीवन में कटुता आयेगी। वर्ष का उत्तरार्ध लाभदायक रहेगा। 2,6,10 मास कष्टदायक रहेंगे।
  12. 12. मीन- मीनराशि वालों के लिए यह वर्ष प्रारम्भ में वाहन से भय चोट-चपेट, आॅपरेशन की संभावना रहेगी। माता पिता को शरीरिक पीड़ा होगी। पत्नी का स्वास्थ्य बाधा युक्त रहेगा। निर्माण कार्यों में अवरोध उत्पन्न होगा। सुख-साधनों के लिये कठिन परिश्रम करना पड़ेगा। 3,7,11 मास कष्टदायक रहेंगे।

Thursday, July 5, 2012

पंचमहाभूतों से बना यह शरीर वासनारूप है।


पंचमहाभूतों से बना यह शरीर वासनारूप है।

     यह जो पंच 5 भूत का शरीर तुम देखते हो । सो सब वासना रूप है । और वासना से ही खड़ा है । जैसे माला के दाने धागे के आश्रय से गुँथे होते हैं । और जब धागा टूट जाता है । तब अलग-अलग हो जाते हैं । और नहीं ठहरते । वैसे ही वासना के क्षय होने पर । पंच 5 भूत का शरीर नहीं रहता । इससे सब अनर्थों का कारण वासना ही है । शुद्ध वासना में जगत का अत्यन्त अभाव निश्चय होता है । हे शिष्य ! अज्ञानी की वासना जन्म का कारण होती है । और ज्ञानी की वासना जन्म का कारण नहीं होती । 
   जैसे कच्चा बीज उगता है । और जो दग्ध हुआ है । सो फिर नहीं उगता । वैसे ही अज्ञानी की वासना रस सहित है । इससे जन्म का कारण है । और ज्ञानी की वासना रस रहित है । वह जन्म का कारण नहीं । ज्ञानी की चेष्टा स्वाभाविक होती है । वह किसी गुण से मिल कर अपने में चेष्टा नहीं देखता । वह खाता । पीता । लेता । देता । बोलता चलता । एवम और अन्य व्यवहार करता है ।
           पर अन्तःकरण में सदा अद्वैत निश्चय को धरता है । कदाचित द्वैत भावना उसको नहीं फुरती । वह अपने स्वभाव में स्थित है । इससे उसकी चेष्टा जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कुम्हार के चक्र को जब तक घुमावे । तब तक फिरता है । और जब घुमाना छोड़ दे । तब स्थीयमान गति से उतरते उतरते स्थिर रह जाता है । वैसे ही जब तक अहंकार सहित वासना होती है । तब तक जन्म पाता है । और जब अहंकार से रहित हुआ । तब फिर जन्म नहीं पाता ।

शयन, उपवेशन, नेत्रपाणि प्रकाशन, गमन, आगमन, सभा वास, आगम, भोजन, नृत्य लिप्सा, कौतुक, निद्रा-अवस्था-कथन

  शयन , उपवेशन , नेत्रपाणि प्रकाशन , गमन , आगमन , सभा वास , आगम , भोजन , नृत्य लिप्सा , कौतुक , निद्रा-अवस्था-कथन   शयनं चोपवेशं च नेत्र...