शयन, उपवेशन, नेत्रपाणि प्रकाशन, गमन, आगमन, सभा वास, आगम, भोजन, नृत्य लिप्सा, कौतुक, निद्रा-अवस्था-कथन

 

शयन, उपवेशन, नेत्रपाणि प्रकाशन, गमन, आगमन, सभा वास, आगम, भोजन, नृत्य लिप्सा, कौतुक, निद्रा-अवस्था-कथन

 

शयनं चोपवेशं च नेत्रपाणि प्रकाशनम् । गमनागमनं चाऽथ सभायां वसतिं तथा ।।

आगमं भोजनं चैव नृत्यं लिप्सां च कौतुकम्। निद्रां ग्रहाणां चेष्टां च कथयामि तवाग्रतः।।

यस्मिन्नृक्षे भवेत् खेटस्तेन तं परिपूरयेत् । पुनरंशेन सम्पूर्य स्वनक्षत्रं नियोजयेत् ।।

यातदण्डं तथा लग्नमेकीकृत्य सदा पुनः । रविभिस्तु हरेद् भागं शेषं कार्ये नियोजयेत् ।।

नाक्षत्रिक-दशारीत्या पुनः पूरणमाचरेत्। नामाद्यस्वरसंख्याढ्यं हर्तव्यं रविभिस्ततः ।।

रवौ पञ्च तथा देयाश्चन्द्रे दद्याद् द्वयं तथा। कुजे द्वयं च संयुक्तं बुधे त्रीणि नियोजयेत्।।

गुरौ बाणाः प्रदेयाश्च त्रयं दद्याच्च भार्गवे। शनौ त्रयमथो देयं राहौ दद्याच्चतुष्टयम् ।।

त्रिभिः भक्तं च शेषांकैः सा पुनस्त्रिविधा स्मृता । दृष्टिश्चेष्टा विचेष्टा च तत्फलं कथयाम्यहम्।।

जिस नक्षत्र में ग्रह हो उस नक्षत्र-(अश्विनी से लेकर)-संख्या को ग्रहसंख्या से गुणा करके उस गुणनफल से ग्रह निष्ठ नवमांश संख्या को गुणा करे । उसमें वर्तमान नक्षत्र संख्या (चन्द्र नक्षत्र), इष्ट घटी संख्या और लग्नसंख्या जोड़े तथा उस योगफल में १२ से भाग देकर जो शेष हो, उससे क्रम से शयनादि अवस्था जाननी चाहिए। पुनः उस अवस्था के माध्यम से चेष्टा जानने के लिए, पूर्वोक्त शेषाङ्क (अवस्था-संख्या) को उसी से गुणा करके उस गुणनफल में नाम के प्रथमाक्षर सम्बन्धी स्वराङ्क जोड़कर १२ से भाग देकर जो शेष हो, उसमें ग्रह के ध्रुवाङ्क जोड़े।

 

ग्रहों का ध्रुवाङ्क इस प्रकार हैं:-रवि के ५, चन्द्रमा २, मंगल के २, बुध के ३, गुरु के ५, शुक्र के ३, शनि के ३, राहु के ४ जोड़कर, ३ का भाग देकर जो शेषाङ्क हो उससे १ शेष रहे तो दृष्टि, २ शेष में चेष्टा और ३ शेष में विचेष्टा जानना चाहिए । यहाँ पर ३ का भाग दे रहे हैं, अतः ३ शेष नहीं रह सकता, इसलिए शून्य शेष के स्थान में ३ शेष जानना चाहिए।

उदाहरण-यथा सूर्य राश्यादि ३।२०।४।२५ है, सूर्य अश्लेषा के द्वितीय चरण में है,  

अतः ९X१ = ९, सातवें नवमांश है, X७ = ६३, इसमें जन्मनक्षत्र मघा की संख्या १० तथा जन्मेष्ट काल १५ घटी एवं जन्मलग्न संख्या ९-इन तीनों को जोड़ने ६३+१०+ १५+ ९= ९७ हुआ, इसमें १२ का भाग देने से शेष १ रहा, अतः शयन अवस्था हुई। इससे ज्ञात हुआ कि सूर्य शयन अवस्था में है फिर शेष १ को शेष  १ से गुणा करने पर १ हुआ। फिर जातक के पुकारनाम (राजन) के आद्याक्षर का स्वरांक ४ जोड़कर उसमें १२ का भाग दिया तो ५ शेष रहा, इसमें रवि के ध्रुवाङ्क ५ को जोड़कर ३ का भाग देने से १ शेष रहा, अतः प्रथम दृष्टि अवस्था हुई। इसी प्रकार सभी ग्रहों की अवस्था जानकर उस अवस्था के अनुरूप ही शुभ अशुभ फल जानना चाहिए।

इस उदाहरण में जो नामाक्षर का स्वरांक लिया गया है, वह चक्र निम्नवत् है




इस चक्र के अनुसार नामाक्षर के प्रथम अक्षर से स्वर का अंक जान लेना चाहिये।

दृष्टि आदि के फल

 

दृष्टौ मध्यफलं ज्ञेयं चेष्टायां विपुलं फलम् ।

विचेष्टायां फलं स्वल्पमेवं दृष्टिफलं विदुः।।

शुभाऽशुभं ग्रहाणां च समीक्ष्याऽथ बलाऽबलम् ।

तुङ्गस्थाने विशेषेण बलं ज्ञेयं तथा बुधैः।।

 

वक्ष्यमाण कथित दृष्टि में अवस्थाफल मध्यम, चेष्टा में कथित फल विपुल (पूर्ण) तथा विचेष्टा में कथित फल स्वल्प होता है । ग्रहों के बलाबल तथा शुभाशुभ देखकर ही विद्वानों को फलादेश करना चाहिए एवं अपने उच्च स्थान में विशेष बल जानना चाहिए ।३८-३९।

 

।। इति।।

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