शिवलिङ्ग पूजन का प्रारम्भ एवं महत्त्व

शिवलिङ्ग के पूजन प्रारम्भ होने के सम्बन्ध में एक पौराणिकी कथा प्राप्त होती है कि-दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में शिवजी का भाग नहीं रखा, जिससे कुपित होकर सती पार्वती ने दक्ष के यज्ञमण्डप में योगाग्नि द्वारा अपना शरीर जलाकर प्राण त्याग कर दिया। सती के शरीर के त्यागे जाने का समाचार सुनकर शिवजी अत्यन्त कुपित हो गये और वे नग्नावस्था में पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे। एक दिन वह नग्नावस्था में ही ब्राह्मणों की बस्ती में पहुँच गये। शिवजी के नग्न स्वरूप को देखकर ब्राह्मणों की स्त्रियाँ भगवान् शिवजी पर मोहित हो गयीं। स्त्रियों की मोहावस्था को देखकर ब्राह्मणों ने शिवजी को शाप दिया कि ‘इनका लिङ्ग इनके शरीर से तत्काल गिर जाय।’ ब्राह्मणों के शाप के प्रभाव से लिङ्ग उनके शरीर से अलग होकर गिर गया, जिससे तीनों लोकों में घोर उत्पात होने लग गया। 
समस्त देव, ऋषि, मुनि व्याकुल होकर ब्रह्माजी की शरण में गये। ब्रह्माजी ने योगबल से शिव-लिङ्ग के अलग होने का कारण जान लिया और वह समस्त देवताओं, ऋषियों और मुनियों को अपने साथ लेकर शिवजी के समीप पहुँचे। ब्रह्माजी ने शिवजी से प्रार्थना की कि-‘आप अपने लिङ्ग को पुनः धारण कीजिये, अन्यथा तीनों लोक नष्ट हो जायेंगे। ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर शिवजी बोले कि-आज से सभी लोग मेरे लिङ्ग की पूजा प्रारम्भ करदें, तो मैं पुनः अपने लिङ्ग को धारण कर लूँगा। शिवजी की बात सुनकर ब्रह्माजी ने सर्व प्रथम सुवर्ण का शिवलिङ्ग बनाकर उसका विधिवत् पूजन किया। पश्चात् देवताओं, ऋषियों और मुनियों ने अनेक द्रव्यों के शिव-लिङ्ग बनाकर पूजन किया। तभी से शिव-लिङ्ग के पूजन का क्रम प्रारम्भ हुआ।
जो मनुष्य किसी तीर्थ में तीर्थ की मिट्टी से शिवलिङ्ग बनाकर उनका हजार बार अथवा लाख बार अथवा करोड़ बार सविधि पूजन करता है, तो वह साधक शिवस्वरूप हो जाता है।जो मनुष्य तीर्थ में मिट्टी, भस्म, गोबर अथवा बालू का शिवलिङ्ग बनाकर एक बार भी उसका सविधि पूजन करता है, वह साधक दस हजार कल्प तक स्वर्ग में निवास करता है।
शिव-लिङ्ग का विधिपूर्वक पूजन करने से मनुष्य सन्तान, धन, धान्य, विद्या, ज्ञान, सद्बुद्धि, दीर्घायु और मोक्ष को प्राप्त करता है।
जिस स्थान पर शिवलिङ्ग का पूजन होता है, वह तीर्थ न होने पर भी तीर्थ बन जाता है।
जिस स्थान पर सर्वदा ही शिव पूजन होता है, उस स्थान पर जिस मनुष्य की मृत्यु होती है, वह शिवलोक को प्राप्त करता है। जो मनुष्य शिव, शिव, शिव, इस प्रकार सर्वदा कहता रहता है, वह परम पवित्र और परम श्रेष्ठ हो जाता है और वह धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को भी प्राप्त करता है।
‘शिव’ शब्द के उच्चारण मात्र से मनुष्य के समस्त प्रकार के पापों का विनाश हो जाता है। अतः जो मनुष्य ‘शिव-शिव’ का उच्चारण करते हुए प्राणत्याग करता है, वह अपने करोड़ों जन्म के पापों से मुक्त होकर ‘शिवलोक’ को प्राप्त करता है।
‘शिव’ शब्द का अर्थ-कल्याण है। अतः जिसकी जिह्ना पर अहर्निश कल्याणकारी ‘शिव’ का नाम रहता है, उसका बाह्य और आभ्यन्तर दोनो ही शुद्ध हो जाते हैं और वह शिवजी की समीपता का अधिकारी बन जाता है। ‘शिव’ यह दो अक्षरों वाला नाम ही परब्रह्मस्वरूप एवं तारक है, इससे भिन्न और कोई दूसरा तारक ब्रह्म नहीं है-

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