माहालक्ष्मी कि उत्पत्ति



माहालक्ष्मी कि उत्पत्ति श्रीविष्णु पुराण के अनुसार वें अध्याय के अनुसार

धर्म शास्त्रो के मत अनुशार लक्ष्मी कि उत्पत्ति के विषय में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। उन प्राचीन कथाओं में समुद्र मंथन के दौरान मां महालक्ष्मी कि उत्पत्ति मानी जाती हैं। विभिन्न ग्रंथो में लक्ष्मी समुद्र मंथन कि कथाओं में अंतर देखने को मिलता हैं। परंतु मूलतः सब कथाओं में अंतर होने के उपरांत भी अधिकतर समान हैं।
श्रीविष्णु पुराण के अनुसार
एक बार घूमते हुए शंकर के अवतार श्रीदुर्वासाजी ने विद्याध$ी के हातों में सन्तानक पुष्पों की एक दिव्य माला देखी। उसकी गंध से सुवासित होकर वह माला वनवासियों के लिये मन-मोहक हो रहा था। ऐसे दिव्य सुवासित माला को देखकर उन्मत्त वृत्तिवाले श्रीदुर्वासाजी ने विद्याधर-सुन्दरी से माँगा। उनके माँगने पर उस विद्याधरी ने उन्हें आदर पूर्वक प्रणाम कर वह माला दे दी। और वह माला श्रीदुर्वासाजी ने अपने मस्तक पर डाल ली और पृथिवी पर विचरने लगे। इसी समय उन्होंने ऐरावत पर चढकर देवताओं के साथ इन्द्र को आते देखा। उन्हें देखकर मुनिवर ने वह सुन्दर माला अपने सिर से उतार कर देवराज इन्द्र के ऊपर फेंक दी। इन्द्र ने उस माला को लेकर ऐरावत के गले में डाल दिया। ऐरावत हाथी ने भी उसकी गंध से आक‌िर्षित हकर सूँड से सूँघकर पृथिवी पर फेंक दिया। दुर्वासाजी ने जब यह देखा कि उसकी माला की यह दुर्गति हुई तो वह क्रोधित हुए और उन्होंने इन्द्र को श्रीहीन होने का शाप दिया। जब इन्द्र ने यह सुना तो भयभीत होकर ऋषि के पास आये पर उनका शाप लौट नहीं सकता था। इसी शाप के कारण असुरों ने इन्द्र और देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। देवता ब्रह्मा जी की शरण में गये और उनसे अपने कष्ट के विषय में कहा।
         ब्रह्मा जी देवताओं को लेकर विष्णु के पास गये और उनसे सारी बात कही तब विष्णु ने देवताओं को दानव से सुलह करके समुद्र मंथन करने की सलाह दी और स्वयं भी सहायता का आश्वासन दिया। उन्होंने बताया कि समुद्र मंथन से उन्हें लक्ष्मी और अमृत पुनः प्राप्त होगा। अमृत पीकर वे अजर और अमर हो जाएंगे। देवताओं ने भगवान विष्णु की बात सुनकर समुद्र मंथन का आयोजन किया। उन्होंने अनेक औषधियां एकत्रित की और समुद्र में डाली। फिर मंथन किया गया।
         मंथन के लिये जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े जोर की आवाज उठ रही थी। समुद्र-मंथन में सर्वप्रथम देवकार्यों की सिद्धि के लिये साक्षात् सुरभि कामधेनु प्रकट हुईं। सभी ने मिलकर कामधेनु को सम्मान पूर्वक और पुनः मंथन करने पर उस क्षीर सागर से कल्पवृक्षअद्भुत-अप्सराएँ, चन्द्रमा,  विष आदि उत्पन्न हुए। 
पुनबड़े वेग से समुद्र मंथन आरम्भ किया। इस बार के मंथन से रत्नों में सबसे उत्तम रत्न कौस्तुभमणि निकलीजो सूर्यमण्डल के समान परम कान्तिमान थी। वह मणि अपने प्रकाश से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थी। उसे भगवान विष्णु की सेवा में भेंट कर दिया। तदनन्तरदेवताओं और दैत्यों ने पुनसमुद्र को मथना आरम्भ किया। वे सभी बल में बढ़े-चढ़े थे और बार-बार गर्जना कर रहे थे। अब की बार उसे मथे जाते हुए समुद्र से उच्चै:श्रवा नामक अश्व प्रकट हुआ। वह समस्त अश्वजाति में एक अद्भुत रत्न था। उसके बाद गज जाति में रत्न भूत ऐरावत प्रकट हुआ। उसके साथ श्वेतवर्ण के चौसठ हाथी और थे। ऐरावत के चार दाँत बाहर निकले हुए थे और मस्तक से मद की धारा बह रही थीइस ऐरावत हाथी को इन्द्र ने ले लिया। पुनः वे श्रेष्ठ देवता और दानव पुनपहले की ही भाँति समुद्र-मंथन करने लगे। अब की बार समुद्र से सम्पूर्ण दशों दिशाओं में दिव्य प्रकाश व्याप्त हो गया उस दिव्य प्रकाश से देवी महालक्ष्मी प्रकट हुईंमहालक्ष्मी के प्रकट होते ही गंगा आदि नदियाँ वहाँ स्वयं उपस्थित होकर माता लक्ष्मी को सुवर्णमय कलशों में भरे हुए निर्मल जल से स्नान आदि कराया।  क्षीर सागर नें स्वयं मूर्तिमान होकर उन्हें विकसित कमल पुष्पों की माला दी तथा विश्वकर्मा ने उनके अंग-प्रत्यंग में नाना प्रकार के आभूषण पहनाये। इस प्रकार दिव्य माला और वस्‍त्र धारण करसबके देखते-देखते सर्वलोक महेश्वरी माता लक्ष्मी श्रीविष्‍णु भगवान् के वक्षःस्‍थल में विराजमान हुईं।  श्री हरि के वक्षःस्‍थल में विराजमान श्रीलक्ष्मीजी का दर्शन कर देवताओं को अकस्मात् अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई। माता का प्राकट्य समुद्र से होने के कारण श्रीलक्ष्मीजी को समुद्र की पुत्री के रूप में जाना जाता है।
 महालक्ष्मी ने देवतादानवमानव सम्पूर्ण प्राणियों की ओर दृष्टिपात किया। माता महालक्ष्मी की कृपा-दृष्टि पाकर सम्पूर्ण देवता उसी समय पुनः श्रीसम्पन्न हो गये। वे तत्काल राज्याधिकारी के शुभ लक्षणों से सम्पन्न दिखायी देने लगे।
श्रीलक्ष्मीजी की उत्पत्ति की दूसरी कथा

श्रीलक्ष्मीजी पहले भृगुजी के द्वारा ख्याति नामक स्‍त्री से उत्पन्न हुईं थीं, फिर अमृत मन्‍थन के समय देवताओं एवं दानवों के प्रयत्न से वे ही समुद्र से प्रकट हुईं। संसार के स्वामी देवाधिदेव श्रीहरि जब-जब अवतार धारण करते हैं तब-तब लक्ष्मीजी उनके साथ रहती हैं। जब श्रीहरि आदित्यरूप हुए तब वे पद्म से उत्पन्न हुईं और पद्मा कहलाईं। तथा जब वे परसुराम हुए तब वे पृथिवी हुईं। श्रीहरि जब  राम बने तब यही लक्ष्मी सीता बनींऔर कृष्‍णावतार में रुक्मिणी बनीइसी प्रकार अन्य अवतारों में भी ये भगवान् से कभी अलग नहीं हुईं।

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